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ग़ज़ल
बहुत हस्सास होने से भी शक को राह मिलती है
कहीं अच्छा तो लगता है बुरा ऐसा भी होता है
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया