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ग़ज़ल
ये मुआ'मले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर
कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जानते हैं वो हुसूल-ए-माया की हर इक सबील
हिफ़्ज़ हैं सज्जादगाँ को ख़ानक़ाही के निसाब
हनीफ़ साजिद
ग़ज़ल
ब-जुज़ तुम्हारे नहीं कोई ख़ानक़ाही अब
मैं किस का नाम लिखूँ अपने नुक्ता-चीनों में
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
अपना बीमार है दिल इश्क़ का बीमार नहीं
ख़ुद तशफ़्फ़ी के सिवा हिज्र का आज़ार नहीं
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था
काग़ज़ की नाव थी जिसे दरिया अज़ीज़ था
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था
कभी तो एहतिमाम-ए-सोहबत-ए-याराँ भी होना था
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
तर्क क्यूँ करते नहीं हो कारोबार-ए-आरज़ू
'ख़ानक़ाही' अब तो बालों में सफ़ेदी आ गई
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
मुसाफ़िर ख़ाना-ए-इम्काँ में बिस्तर छोड़ जाते थे
वो हम थे जो चराग़ों को मुनव्वर छोड़ जाते थे
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
दिए तेरी रहगुज़ारों के जहाँ जहाँ जले हैं
न चराग़-ए-बुत-कदा है न चराग़-ए-ख़ानक़ाही