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ग़ज़ल
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हमारी क़ौम पर तारी है गहरी नींद कुछ ऐसी
कि जैसे ख़्वाब में डूबे हुए ख़रगोश रहते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
ग़लत अंदाज़ा था ख़रगोश का कछवे के बारे में
पहुँचना है पहुँच जाएँगे काहिल से ज़रा पहले