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ग़ज़ल
मिल ही जानी थी मुनासिब कोई क़ीमत मुझ को
तू ने समझा है मगर माल-ए-ग़नीमत मुझ को
वरुण गगनेजा वाहिद
ग़ज़ल
तब मैं समझूँगा कि इस नफ़्स ने खाई है शिकस्त
राएगाँ शय जो मुझे माल-ए-ग़नीमत न लगे
शाहनवाज़ अंसारी
ग़ज़ल
पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे
हम ही थे माल-ए-ग़नीमत हम ही ग़ारत-गर भी थे