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ग़ज़ल
न हो पहलू में मेरे दिल तो कोई बात क्यूँ पूछे
यही तो इक ज़रीया है हसीनों तक रसाई का
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
औरों के लिए जो भी हो इश्क़ की तक़दीरें
पर मैं ने तो इस के ज़रिये अपना ख़ुदा देखा
अनमोल सावरण कातिब
ग़ज़ल
ख़त लिखो या फ़ोन के ज़रीये पता लेते रहो
वर्ना मैं थोड़े दिनों में लापता हो जाऊँगा
सुबोध लाल साक़ी
ग़ज़ल
'मुनीर' अच्छा ज़रीया है अलाएक़ क़त्अ करने का
अजल का आसरा गोया है जाँ का पालने वाला
मुनीर भोपाली
ग़ज़ल
ख़ुदा के याद आने का बड़ा अच्छा ज़रीया है
शनासा-ए-करम वो बानी-ए-जौर-ओ-जफ़ा क्यों हो
मुनीर भोपाली
ग़ज़ल
अहल-ए-महफ़िल को सुनाता हूँ मज़ामीन-ए-बहार
तब-ए-रंगीं के ज़रीये फूल बरसाता हूँ मैं