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ग़ज़ल
कभी सुरमई कभी आतिशी कभी नुक़रई कभी कासनी
किसी एक रंग में रह के जी ही लगाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
अभी तक पानियों में सुरमई साए उतरते हैं
अभी तक धड़कनों में दर्द की मिज़राब ज़िंदा है