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ग़ज़ल
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गिला-शिकवा कहाँ रहता है दिल हम-साज़ होता है
मोहब्बत में तो हर इक जुर्म नज़र-अंदाज़ होता है
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
अब जो हम ज़ीस्त में बेज़ार नज़र आते हैं
हर तरफ़ अपने ख़रीदार नज़र आते हैं
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
कहीं से ग़ैर जो पहलू में आए बैठे हैं
इसी लिए वो हमें यूँ भुलाए बैठे हैं
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
रक़्स में उस के संजाफ़-ए-सुर्ख़ के आलम को देख
शोला-ए-जव्वाला दामन से लिपट जाने लगा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
छोड़ कर तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ महव-ए-रजज़-ख़्वानी हुए
नग़्मा-संजान-ए-चमन मेरी ग़ज़ल गाने के बा'द
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
ग़ज़ल
फिर दिल ने कहा प्यार किया जाए किसी को
जैसे भी हो हमवार किया जाए किसी को