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ग़ज़ल
ख़्वाहिशें ख़ून में उतरी हैं सहीफ़ों की तरह
इन किताबों में तिरे हाथ की तहरीर भी है
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
जो सहीफ़ों में लिखी है वो क़यामत हो जाए
गर मोहब्बत दिल-ए-इंसाँ से भी रुख़्सत हो जाए
रेहाना रूही
ग़ज़ल
ग़लत नीं है कि बुलबुल हाफ़िज़-ए-सीपारा-ए-गुल है
सनद रखता हूँ मैं गुल-बर्ग के रंगीं सहीफ़ों सीं
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
क्यूँ सहीफ़ों में लिखा है कि मिलेगा इंसाफ़
लफ़्ज़-ओ-मानी न जुदा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ
अनीस अंसारी
ग़ज़ल
लिख रही हूँ तिरे माथे पे कोई 'मीर' का शे'र
पढ़ रही हूँ तिरी आँखों को सहीफ़ों की तरह