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ग़ज़ल
तब कहीं कुछ पता चला सिद्क़-ओ-ख़ुलूस-ए-हुस्न का
जब वो निगाहें इश्क़ से बातें बना के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई' तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तलब में सिद्क़ है तो एक दिन मंज़िल पे पहुँचोगे
क़दम आगे बढ़ाओ ख़ुद को अपना रहनुमा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
ख़ुद-ग़र्ज़ियों के साए में पाती है परवरिश
उल्फ़त को जिस का सिद्क़ ओ सफ़ा नाम रख दिया
गोपाल मित्तल
ग़ज़ल
हैं फ़िदा उन दोस्तों पर जिन में हो सिद्क़ ओ सफ़ा
पर बहुत कम आप में सिद्क़ ओ सफ़ा पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
खींच ली किस ने तनाब-ए-ख़ेमा-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा
कौन है इस दश्त-ए-ग़म में बे-हुनर होता हुआ
प्रेम कुमार नज़र
ग़ज़ल
आइने जितने भी देखे वो मुकद्दर थे 'सुरूर'
जौहर-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा फिर भी हमारा न गया