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मु'आफ़ कर मिरी मस्ती ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा-व-जल

अहमद फ़राज़

मु'आफ़ कर मिरी मस्ती ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा-व-जल

अहमद फ़राज़

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    मु'आफ़ कर मिरी मस्ती ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा-व-जल

    कि मेरे हाथ में साग़र है मेरे लब पे ग़ज़ल

    करीम है तो मिरी लग़्ज़िशों को प्यार से देख

    रहीम है तो सज़ा-ओ-जज़ा की हद से निकल

    है दोस्ती तो मुझे इज़्न-ए-मेज़बानी दे

    तू आसमाँ से उतर और मिरी ज़मीन पे चल

    मैं पा-ब-गिल हूँ मगर छू चुका मिनारा-ए-'अर्श

    सो तू भी देख ये ख़ाक-ओ-ख़शारह-ओ-जंगल

    बहुत 'अज़ीज़ है मुझ को ये ख़ाकदाँ मेरा

    ये कोहसार ये क़ुल्ज़ुम ये दश्त ये दलदल

    मिरे जहाँ में ज़मान-ओ-मकान-ओ-लैल-ओ-नहार

    तिरे जहाँ में अज़ल है अबद आज कल

    मिरे लहू में है बर्क़-ए-तपाँ का जज़्ब-ओ-गुरेज़

    तिरे सुबू में मय-ए-ज़िंदगी ज़हर-ए-अजल

    तिरी बहिश्त है दश्त-ए-जुमूद-ओ-बहर-ए-सुकूत

    मिरी सरिश्त है आशोब-ए-ज़ात से बेकल

    तू अपने 'अर्श पे शादाँ है सो ख़ुशी तेरी

    मैं अपने फ़र्श पे नाज़ाँ हूँ निगार-ए-अज़ल

    मुझे जन्नत-ए-गुम-गश्ता की बशारत दे

    कि मुझ को याद अभी तक है हिज्रत-ए-अव्वल

    तिरे करम से यहाँ भी मुझे मयस्सर है

    जो ज़ाहिदों की 'इबादत में डालता है ख़लल

    वो सैर-चश्म हूँ मेरे लिए है बे-वक़'अत

    जमाल-ए-हूर-ओ-शराब-तहूर-ओ-शीर-ओ-‘असल

    गुनाहगार तो हूँ पर इस क़दर कि मुझे

    सलीब रोज़-ए-मुकाफ़ात की लगे बोझल

    कहीं कहीं कोई लाला कहीं कहीं कोई दाग़

    मिरी बयाज़ की सूरत है मेरी फ़र्द-ए-अमल

    वो तू कि ‘उक़्दा-कुशा-ओ-मुसब्बिब-उल-अस्बाब

    ये मैं कि आप मो'अम्मा हूँ आप अपना ही हल

    मैं आप अपना ही हाबील अपना ही क़ाबील

    मिरी ही ज़ात है मक़्तूल-ओ-क़ातिल-ओ-मक़्तल

    बरस बरस की तरह था नफ़स नफ़स मेरा

    सदी सदी की तरह काटता रहा पल पल

    तिरा वजूद है ला-रैब अशरफ़-ओ-आ'ला

    जो सच कहूँ तो नहीं मैं भी अर्ज़ल-ओ-असफ़ल

    ये वाक़ि'आ है कि शा'इर वो देख सकता है

    रहे जो तेरे फ़रिश्तों की आँख से ओझल

    वो पर-फ़िशाँ हैं मगर ग़ोल-ए-शप्परक की तरह

    सो राएगाँ हैं कि जूँ चश्म-ए-कोर में काजल

    मिरे लिए तो है सौ बख़्शिशों की इक बख़्शिश

    क़लम जो अफ़सर-ओ-तब्ल-ओ-‘अलम से है अफ़ज़ल

    यही क़लम है कि जिस की सितारा-साज़ी से

    दिलों में जोत जगाती है 'इश्क़ की मश'अल

    यही क़लम है जो दुख की रुतों में बख़्शता है

    दिलों को प्यार का मरहम सुकून का संदल

    यही क़लम है कि ए'जाज़-ए-हर्फ़ से जिस के

    तमाम ‘इश्वा-तराज़ान-ए-शहर हैं पागल

    यही क़लम है कि जिस ने मुझे ये दर्स दिया

    कि संग-ओ-ख़िश्त की ज़द पर रहेंगे शीश-महल

    यही क़लम है कि जिस की सरीर के आगे

    हैं सुर्मा दर-गुलू खूँ-ख़्वार लश्करों के बिगल

    यही क़लम है कि जिस के हुनर से निकले हैं

    रह-ए-हयात के ख़म हों कि ज़ुल्फ़-ए-यार के बल

    यही क़लम है कि जिस की 'अता से मुझ को मिले

    ये चाहतों के शगूफ़े मोहब्बतों के कँवल

    तमाम सीना-फ़िगारों को याद मेरे सुख़न

    हर एक ग़ैरत-ए-मरियम के लब पे मेरी ग़ज़ल

    इसी ने सहल किए मुझ पे ज़िंदगी के 'अज़ाब

    वो अहद-ए-संग-ज़नी था कि दौर-ए-तेग़-ए-अजल

    इसी ने मुझ को सुझाई है राह-ए-अहल-ए-सफ़ा

    इसी ने मुझ से कहा है पुल-ए-सिरात पे चल

    इसी ने मुझ को चटानों के हौसले बख़्शे

    वो कर्बला-ए-फ़ना थी कि कारगाह-ए-जदल

    इसी ने मुझ से कहा इस्म-ए-अहल-ए-सिद्क़ अमर

    इसी ने मुझ से कहा सच का फ़ैसला है अटल

    इसी के फ़ैज़ से आतिश-कदे हुए गुलज़ार

    इसी के लुत्फ़ से हर ज़िश्त बन गया अजमल

    इसी ने मुझ से कहा जो मिला बहुत कुछ है

    इसी ने मुझ से कहा जो नहीं है हाथ मल

    इसी ने मुझ को क़नाअ'त का बोरिया बख़्शा

    इसी के हाथ से दस्त-ए-दराज़-ए-तम’ है शल

    इसी की आग से मेरा वजूद रौशन है

    इसी की आब से मेरा ज़मीर है सैक़ल

    इसी ने मुझ से कहा बै'अत-ए-यज़ीद कर

    इसी ने मुझ से कहा मस्लक-ए-हुसैन पे चल

    इसी ने मुझ से कहा ज़हर का पियाला उठा

    इसी ने मुझ से कहा जो कहा है उस से टल

    इसी ने मुझ से कहा ‘आजिज़ी से मात खा

    इसी ने मुझ से कहा मस्लहत की चाल चल

    इसी ने मुझ से कहा ग़ैरत-ए-सुख़न को बेच

    कि ख़ून-ए-दिल के शरफ़ को अशरफ़ी से बदल

    इसी ने मुझ को 'इनायत किया यद-ए-बैज़ा

    इसी ने मुझ से कहा सेहर-ए-सामरी से निकल

    इसी ने मुझ से कहा 'अक़्ल तह-नशीनी है

    इसी ने मुझ से कहा वर्ता-ए-ख़िरद से निकल

    इसी ने मुझ से कहा वज़'-ए-'आशिक़ी को छोड़

    वो ख़्वाह 'इज्ज़ का लम्हा हो या ग़ुरूर का पल

    अज़िय्यतों में भी बख़्शी मुझे वो ने'मत-ए-सब्र

    कि मेरे दिल में गिरह है मेरे माथे पे बल

    हैं सब्त सीना-ए-महताब पर क़दम मेरे

    हैं मुंतज़िर मिरे मिर्रीख़-ओ-मुश्तरी-ओ-ज़ुहल

    तिरी 'अता के सबब या मेरी अना के सबब

    किसी दु'आ का है मौक़ा इल्तिजा का महल

    सो तुझ सा है कोई ख़ालिक़ मुझ सी है मख़्लूक़

    कोई तेरा है सानी कोई मेरा बदल

    'फ़राज़' तू भी जुनूँ में किधर गया है निकल

    तिरा दयार मोहब्बत तिरी निगार ग़ज़ल

    क़ाफ़

    टपक चुका है बहुत तेरी आँख से ख़ूँ-नाब

    बरस चुका है बहुत तेरे दर्द का बादल

    कुछ और देर अभी हसरत-ए-विसाल में रह

    कुछ और देर अभी आतिश-ए-फ़िराक़ में जल

    किसी बहार-ए-शिमाइल की बात कर कि बने

    हर एक हर्फ़ शगूफ़ा हर एक लफ़्ज़ कँवल

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