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ग़ज़ल
और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
हमें अपने घर से चले हुए सर-ए-राह उम्र गुज़र गई
कोई जुस्तुजू का सिला मिला न सफ़र का हक़ ही अदा हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे