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ग़ज़ल
वो तब'-ए-यास-परवर ने मुझे चश्म-ए-अक़ीदत दी
कि शाम-ए-ग़म की तारीकी को भी नूर-ए-सहर जाना
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
निशानात-ए-जबीं जोश-ए-अक़ीदत ख़ुद बता देंगे
न पूछो मुझ से सज्दे जा के देखो संग-ए-दर अपना
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
रहा गर आस्ताँ पर आ के मैं फ़र्त-ए-अक़ीदत से
तकल्लुफ़ बरतरफ़ सरकार का क्या इस में नुक़साँ है