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ग़ज़ल
गर्मियाँ शोख़ियाँ किस शान से हम देखते हैं
क्या ही नादानियाँ नादान से हम देखते हैं
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
जाम गर्दिश में है दर-बंद हैं मय-ख़ानों के
कुछ फ़रिश्ते हैं यहाँ रूप में इंसानों के
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
घरों के ताले सँभाल रक्खो सफ़र की साअ'त क़रीब-तर है
हवा का रुख़ ये बता रहा है फिर एक हिजरत क़रीब-तर है
ख़ादिम रज़्मी
ग़ज़ल
शिकायत-ए-सितम-ए-रोज़गार करता हूँ
ख़िज़ाँ के दौर में ज़िक्र-ए-बहार करता हूँ
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
ग़ज़ल
ज़हीर अब्बास सायर
ग़ज़ल
फ़स्ल-ए-गुल आई तो क्या बे-सर-ओ-सामाँ हैं हम
शीशा-ओ-जाम नहीं साक़ी-ए-गुल-फ़ाम नहीं
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
मेरे क़दमों पर निगूँ मेरा ही सर है भी तो क्या
मेरे साए की ये साज़िश कारगर है भी तो क्या
शोएब निज़ाम
ग़ज़ल
वादी-ए-शौक़ में जो शो'ला-ब-दामाँ निकला
वाक़िफ़-ए-रस्म-ओ-रह-ए-कूचा-ए-जानाँ निकला