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ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सब की तक़रीरों में वैसे है ख़ुदा सब का ही इक
हाँ मगर हर दिल की अपनी मज़हबी पोशाक है
ए.आर.साहिल "अलीग"
ग़ज़ल
दीन से दूर, न मज़हब से अलग बैठा हूँ
तेरी दहलीज़ पे हूँ, सब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
मैं नमाज़ी मैं ही पंडित रब ख़ुदा सब एक है
घोंट दो गर्दन भले तुम मज़हबी ज़ंजीर से
अनुकृति तबस्सुम
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मज़हबी मतलब ने ढेरों नाम में बाँटा तुझे
तू तो क़ाज़ी है बता इस की सज़ा क्या है ख़ुदा
अनमोल सावरण कातिब
ग़ज़ल
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
यानी हैं जहाँ हम वाँ इस्लाम नहीं होता