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ग़ज़ल
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ हो उस की तो हो फ़रहत मिरे दिल को
सबा होवेगा मुश्क-चीं की ख़ुशबूई से क्या हासिल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अगर उस ज़ुल्फ़-मुश्क-आमेज़ से चुन्नी में बाल आवे
अजब मैं इत्र-ओ-अंबर कासा-ए-नग़फ़ूर से टपके