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ग़ज़ल
किस को ये मालूम ऐ 'नायाब' निस्बत किस की है
मेरे हर नक़्श-ए-क़दम को मो'तबर करती हुई
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
दिल मिरे दिल मुझे भी तुम अपने ख़वास में रखो
याराँ तुम्हारे बाब में मैं ही न मो'तबर रहा
जौन एलिया
ग़ज़ल
मैं ये जानता था मिरा हुनर है शिकस्त-ओ-रेख़्त से मो'तबर
जहाँ लोग संग-ब-दस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
वही चश्मा-ए-बक़ा था जिसे सब सराब समझे
वही ख़्वाब मो'तबर थे जो ख़याल तक न पहुँचे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बोलती तस्वीर में इक नक़्श लेकिन कुछ हटा सा
एक हर्फ़-ए-मो'तबर लफ़्ज़ों के लश्कर में अकेला