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ग़ज़ल
मा'रिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है
शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
दरिया-ए-मअरिफ़त के देखा तो हम हैं साहिल
गर वार हैं तो हम हैं और पार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
कभी मय-कदे पे जो दिल रहा तिरे आशिक़ों की नज़र पड़े
उसे कहिए बादा-ए-मा'रिफ़त जो छलक पड़े अभी जाम से
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
ताबाँ है दिल में महर-ए-दरख़्शान-ए-मअ'रिफ़त
नूर-उल-क़ुलूब है ये हमारी ज़िया-ए-क़ल्ब
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
ज़रा पीने तो दे साक़ी शराब-ए-मा'रिफ़त मुझ को
उधर फिर जाएगा क़िबला भी रुख़ होगा जिधर मेरा