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ग़ज़ल
जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़
रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
निकाला चाहता है काम क्या ता'नों से तू 'ग़ालिब'
तिरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हँसती आँखें लहू रुलाएँ खिलते गुल चेहरे मुरझाएँ
क्या पाएँ बे-महर हवाएँ दिल धागे उलझा देने से