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ग़ज़ल
कूच अपना उस शहर तरफ़ है नामी हम जिस शहर के हैं
कपड़े फाड़ें ख़ाक-ब-सर हों और ब-इज़्ज़-ओ-जाह चलें
जौन एलिया
ग़ज़ल
मोहब्बत सीं कहता हूँ तौर बद-नामी का बेहतर नहिं
अगर ख़ंदों की सोहबत में न जाओगे तो क्या होगा
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
बुरे को तग भी करने और तवक़्क़ो नेक-नामी की
दिमाग़ अपना सँवारो तुम नहीं है ये ख़लल अच्छा
इस्माइल मेरठी
ग़ज़ल
जो हर्फ़-ए-हक़ की हिमायत में हो वो गुम-नामी
हज़ार वज़्अ' के नाम-ओ-निशाँ से अच्छी है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
है रिदा-ए-नेक-नामी दोश पर अपने मगर
दाग़ रुस्वाई के कुछ ज़ेर-ए-रिदा पाते हैं हम