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ग़ज़ल
ख़ीरा न कर सका मुझे जल्वा-ए-दानिश-ए-फ़रंग
सुर्मा है मेरी आँख का ख़ाक-ए-मदीना-ओ-नजफ़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अब तो जोश-ए-आरज़ू 'तस्लीम' कहता है यही
रौज़ा-ए-शाह-ए-नजफ़-अल्लाह दिखलाए मुझे
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल
मैं उसी कोह-सिफ़त ख़ून की इक बूँद हूँ जो
रेग-ज़ार-ए-नजफ़ ओ ख़ाक-ए-ख़ुरासाँ से मिला
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
या रब न हिन्द ही में ये माटी ख़राब हो
जा कर नजफ़ में ख़ाक-ए-दर-ए-बू-तुराब हो