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ग़ज़ल
वो शुमार-ए-माह-ओ-नुजूम हो कि ख़ुमार-ए-तर्क-ए-रुसूम हो
कोई बार सोच विचार ही का पड़ा न हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
कभी मेहर-ओ-माह-ओ-नुजूम से कभी कहकशाँ से गुज़र गया
जो तेरे ख़याल में चल पड़ा वो कहाँ कहाँ से गुज़र गया
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
जो देखिए तो जिलौ में हैं मेहर-ओ-माह-ओ-नुजूम
जो सोचिए तो सफ़र की ये इब्तिदा भी नहीं