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ग़ज़ल
कभी तो नस्ल-ओ-वतन-परस्ती की तीरगी को शिकस्त होगी
कभी तो शाम-ए-अलम मिटेगी कभी तो सुब्ह-ए-ख़ुशी मिलेगी
अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
ग़ज़ल
इश्क़-ए-सितम-परस्त क्या हुस्न-ए-सितम-शिआ'र क्या
हम भी उन्हीं के हैं तो फिर अपना भी ए'तिबार क्या
बासित भोपाली
ग़ज़ल
आलम निज़ामी
ग़ज़ल
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
वतन की ख़ाक ले कर एक मुट्ठी छोड़ देता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
फूल खिलते हैं तिरे शोला-ए-आवाज़ के साथ