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ग़ज़ल
बहुत अर्सा गुनहगारों में पैग़मबर नहीं रहते
कि संग-ओ-ख़िश्त की बस्ती में शीशागर नहीं रहते
नाज़ ख़यालवी
ग़ज़ल
रस्म रिवायत दीन-धर्म ईमान भरोसे वाले ही क्यों
इश्क़ में जीने मरने वाले भी पैग़म्बर हो जाते हैं
कनुप्रिया
ग़ज़ल
यहाँ पर आँख का देखा हमेशा सच नहीं होता
जिसे पत्थर समझते हैं वो पैग़म्बर निकलता है