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ग़ज़ल
सर दर्द मुझे अपना बढ़ाना नहीं 'अम्बर'
अब कार-ए-मसीहा नहीं करना नहीं करना
ख़ुर्शीद अम्बर प्रतापगढ़ी
ग़ज़ल
इक ठोकर में मुर्दे हज़ारों उठ बैठें हैं गोर से वोहीं
लेता है वो वक़्त-ए-ख़रामश पाँव से अपने कार-ए-मसीहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
क़तरा हूँ मगर रौनक़-ए-सहरा हूँ बुरा हूँ
मज़लूम के ज़ख़्मों का मसीहा हूँ बुरा हूँ