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ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मय-ए-इशरत की ख़्वाहिश साक़ी-ए-गर्दूं से क्या कीजे
लिए बैठा है इक दो चार जाम-ए-वाज़-गूँ वो भी
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अंजाम-ए-कशाकश होगा कुछ देखें तो तमाशा दीवाने
या ख़ाक उड़ेगी गर्दूं पर या फ़र्श पे तारे निकलेंगे
अलीम मसरूर
ग़ज़ल
'असद' साग़र-कश-ए-तस्लीम हो गर्दिश से गर्दूं की
कि नंग-ए-फ़हम-ए-मस्ताँ है गिला बद-रोज़गारी का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गर्दूं को भी अब देख के होती है तसल्ली
ग़ुर्बत में यही एक शनासा नज़र आया
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
मेरी दुनिया जगमगा उट्ठी किसी के नूर से
मेरे गर्दूं पर मिरा माह-ए-तमाम आ ही गया