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ग़ज़ल
गिरने वाली उन तामीरों में भी एक सलीक़ा था
तुम ईंटों की पूछ रहे हो मिट्टी तक हमवार गिरी
जौन एलिया
ग़ज़ल
आँखें नीची कर लो रात के रस्ते ना-हमवार भी हैं
चाँद को तकते चलने वालो देखो ठोकर खाओगे