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ग़ज़ल
उस के जी में क्या ये आई ये उसे क्या हो गया
ख़ुद छुपा आलम से और ख़ुद आलम-आरा हो गया
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं