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ग़ज़ल
सब जिस को असीरी कहते हैं वो तो है अमीरी ही लेकिन
वो कौन सी आज़ादी है यहाँ जो आप ख़ुद अपना दाम नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
आज़ादी का दरवाज़ा भी ख़ुद ही खोलेंगी ज़ंजीरें
टुकड़े टुकड़े हो जाएँगी जब हद से बढ़ेंगी ज़ंजीरें
हफ़ीज़ मेरठी
ग़ज़ल
भलाई ये कि आज़ादी से उल्फ़त तुम भी रखते हो
बुराई ये कि आज़ादी से उल्फ़त हम भी रखते हैं
जोश मलसियानी
ग़ज़ल
क्या बला जब्र-ए-असीरी है कि आज़ादी में भी
दोश पर अपने लिए फिरते हैं ज़िंदाँ-ख़ाना हम
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
मुझे तहज़ीब-ए-हाज़िर ने अता की है वो आज़ादी
कि ज़ाहिर में तो आज़ादी है बातिन में गिरफ़्तारी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वहाँ हैं हम जहाँ 'बेदम' न वीराना न बस्ती है
न पाबंदी न आज़ादी न हुश्यारी न मस्ती है