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ग़ज़ल
कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख जो नहीं मिला उसे भूल जा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के ब'अद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
इश्क़ किया सो दीन गया ईमान गया इस्लाम गया
दिल ने ऐसा काम किया कुछ जिस से मैं नाकाम गया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा
जिस पर तेरा नाम लिखा है उस तारे को ढूँडूँगा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
यानी हैं जहाँ हम वाँ इस्लाम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सदियाँ जिन में ज़िंदा हों वो सच भी मरने लगते हैं
धूप आँखों तक आ जाए तो ख़्वाब बिखरने लगते हैं