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ग़ज़ल
दूर थे और दूर हैं हर दम ज़मीन-ओ-आसमाँ
दूरियों के बा'द भी दोनों में क़ुर्बत है तो है
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
एक निगाह का सन्नाटा है इक आवाज़ का बंजर-पन
मैं कितना तन्हा बैठा हूँ क़ुर्बत के वीराने में
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
सच कहूँ मेरी क़ुर्बत तो ख़ुद उस की साँसों का वरदान है
मैं जिसे छोड़ देता हूँ उस को क़बीला नहीं छोड़ता
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
वस्ल का मौसम हो तो ये सर्दियाँ ही ठीक हैं
हिज्र में क़ुर्बत की ये परछाइयाँ ही ठीक हैं