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ग़ज़ल
मैं वो बोसीदा सा पैराहन हूँ जो पहना गया था एक बार
मुझ को महरूमी की खूँटी पर लटकते देखता रहता है वो
निसार नासिक
ग़ज़ल
हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमा-ए-ख़ूबी
मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है