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ग़ज़ल
इंसान के हाथों में जाज़िब ता'मीर भी है तख़रीब भी है
सौ शमएँ बुझाना आसाँ है इक शम्अ' जलाना मुश्किल है
अतीक़ अहमद जाज़िब
ग़ज़ल
अगरचे अहल-ए-ज़र ता'मीर के वा'दे तो करते हैं
मगर तख़रीब-सामानी जो पहले थी वो अब भी है
रूमाना रूमी
ग़ज़ल
पाबंद-ए-सलासिल नेकी है हासिल है बदी को आज़ादी
ये शक्ल गर ता'मीर की है तख़रीब का उनवाँ क्या होगा