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ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कई अजनबी तिरी राह में मिरे पास से यूँ गुज़र गए
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई तिरा नाम ले के पुकार लूँ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
'सीमाब' बे-तड़प सी तड़प हिज्र-ए-यार में
क्या बिजलियाँ भरी हैं दिल-ए-बे-क़रार में
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर'
ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हर दम तड़प के लोटता फिरता हूँ ख़ाक पर
गोया बना हूँ ताइर-ए-बिस्मिल तिरे बग़ैर