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ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
एक अर्सा हुआ इस तर्क-ए-मरासिम को मगर
अब भी वो मुझ से मोहब्बत के सिले माँगता है
मोहम्मद नईम जावेद नईम
ग़ज़ल
किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
कि जैसे गुज़रे किसी मंज़िल-ए-नजात से वो
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
भूला हुआ हूँ ठोकरें खाने के बअ'द भी