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ग़ज़ल
एक अर्सा हुआ इस तर्क-ए-मरासिम को मगर
अब भी वो मुझ से मोहब्बत के सिले माँगता है
मोहम्मद नईम जावेद नईम
ग़ज़ल
किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
कि जैसे गुज़रे किसी मंज़िल-ए-नजात से वो
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
उन्हें भी तर्क-ए-मरासिम से इक ज़रर पहुँचा
कि चाह कर भी न दे पाए ग़म नया कोई
मेहदी बाक़र ख़ान मेराज
ग़ज़ल
ख़ुद को भी भूल गए तर्क-ए-मरासिम करते
लो तिरे ग़म में गए आख़िरी इल्ज़ाम से भी
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
ग़ज़ल
किस लिए तर्क-ए-मरासिम पर हो आमादा कहो
क्या कोई हम से ज़ियादा तुम को प्यारा मिल गया