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ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन
धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
बे-हद ग़म हैं जिन में अव्वल उम्र गुज़र जाने का ग़म
हर ख़्वाहिश का धीरे धीरे दिल से उतर जाने का ग़म
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
धीरे धीरे घर की अपनी रौशनी कम हो रही है
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
पैहम दस्तक पर बूँदों की आख़िर उस ने ध्यान दिया
खुल गया धीरे धीरे दरीचा पहली पहली बारिश में