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ग़ज़ल
मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मुर्ग़ान-ए-क़फ़स को फूलों ने ऐ 'शाद' ये कहला भेजा है
आ जाओ जो तुम को आना हो ऐसे में अभी शादाब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
काँटों से भरा है दामन-ए-दिल शबनम से सुलगती हैं पलकें
फूलों की सख़ावत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए