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ग़ज़ल
ये गधा जो अपनी ग़फ़्लत से है बेवक़ूफ़ इतना
जो ये ख़ुद को जान जाता बड़ा होशियार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
जिस दिन उस से बात हुई थी उस दिन भी बे-कैफ़ था मैं
जिस दिन उस का ख़त आया है उस दिन भी वीरानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा
आज उस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
यूँ तो इस दौर में बे-कैफ़ सी है बज़्म-ए-हयात
एक हंगामा सर-ए-रित्ल-ए-गिराँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मिज़ाज-ए-अहल-ए-दिल बे-कैफ़-ओ-मस्ती रह नहीं सकता
कि जैसे निकहत-ए-गुल से परेशानी नहीं जाती