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ग़ज़ल
रह-रव-ए-राह-ए-मोहब्बत कौन सी मंज़िल में है
दिल है बे-ज़ार-ए-मोहब्बत और मोहब्बत दिल में है
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
रह-ए-हस्ती में कोई रहनुमा होना ज़रूरी है
सफ़र कश्ती का हो तो नाख़ुदा होना ज़रूरी है
अनवर सादिक़ी
ग़ज़ल
ख़ून-ए-दिल से रह-ए-हस्ती को फ़रोज़ाँ कर लें
मो'तबर और भी हम जश्न-ए-गुलिस्ताँ कर लें
सत्यपाल जाँबाज़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं
ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मैं मुसाफ़िर-ए-रह-ए-इश्क़ हूँ न सहर है कोई न शाम है
ये सफ़र अज़ल से अबद तलक न क़ियाम है न मक़ाम है
पयाम फ़तेहपुरी
ग़ज़ल
ये समझ लो नाशनास-ए-रह-ए-मंज़िल-ए-वफ़ा है
जो क़दम क़दम पे पूछे अभी कितना फ़ासला है