मैं मुसाफ़िर-ए-रह-ए-इश्क़ हूँ न सहर है कोई न शाम है
मैं मुसाफ़िर-ए-रह-ए-इश्क़ हूँ न सहर है कोई न शाम है
ये सफ़र अज़ल से अबद तलक न क़ियाम है न मक़ाम है
मैं तमाम इश्क़-ओ-नियाज़ हूँ वो तग़ाफ़ुल-ओ-हमा-बे-रुख़ी
उसे अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है
तिरी रहगुज़र पे मिरी नज़र मुझे सुब्ह-ओ-शाम की क्या ख़बर
न तिरे ख़याल में सुब्ह है न तिरे ख़याल में शाम है
वो चमन जहाँ पे हों ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ वो वतन जहाँ हो कोई सनम
यहीं अहल-ए-दिल का मक़ाम है यहीं अहल-ए-दिल का क़ियाम है
तुझे गर्दिशों ही से काम है कभी ऐ फ़लक ये बता मुझे
कोई उस के वस्ल की सुब्ह है कोई उस के वस्ल की शाम है
है अजब फ़ज़ा मिरे देस की कोई शैख़ है कोई बरहमन
मुझे आदमी की तलाश है मगर आदमी अभी ख़ाम है
वो जो चुप है शहर है दश्त सा मैं 'पयाम' कैसे जियूँ यहाँ
न अब उस का कोई पयाम है न दुआ है और न सलाम है
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