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ग़ज़ल
सरासर ताख़तन को शश-जिहत यक-अर्सा जौलाँ था
हुआ वामांदगी से रह-रवाँ की फ़र्क़ मंज़िल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है निशाँ मेरा भी शायद शश-जिहात-ए-दहर में
ये गुमाँ मुझ को ख़ुद अपनी बे-निशानी से हुआ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
'इश्क़ के तग़ाफ़ुल से हर्ज़ा-गर्द है 'आलम
रू-ए-शश-जिहत-आफ़ाक़ पुश्त-ए-चश्म-ए-ज़िन्दाँ है