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ग़ज़ल
मुद्दई ख़ुश थे सज़ा-ए-मौत पर 'तारिक़' मगर
क्यों मुझे मुंसिफ़ का चेहरा इतना अफ़्सुर्दा लगा
तारिक़ मुस्तफ़ा
ग़ज़ल
किस को सज़ा-ए-मौत मिलेगी ये कैसी है भीड़ लगी
और क्या उस ने जुर्म किया था कोई नहीं बतलाता है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
रोज़-ए-जज़ा उमीद है सब को सज़ा मिले
इक़दाम-ए-क़त्ल में हैं मिरे सब हसीं शरीक