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ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
यूँ तड़प कर दिल ने तड़पाया सर-ए-महफ़िल मुझे
उस को क़ातिल कहने वाले कह उठे क़ातिल मुझे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हक़ीक़त में जो राज़-ए-दूरी-ए-मंजिल समझते हैं
उन्हीं को हम सुलूक-ए-इश्क़ में कामिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तलाश-ए-मंज़िल-ए-राहत में हम जहाँ गुज़रे
फ़रेब-ख़ुर्दा उमीदों के दरमियाँ गुज़रे
होश नोमानी रामपुरी
ग़ज़ल
है आज और ही कुछ ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में ख़म
भटकने वाले को मंज़िल का रास्ता तो मिला