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ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
'सीमाब' बे-तड़प सी तड़प हिज्र-ए-यार में
क्या बिजलियाँ भरी हैं दिल-ए-बे-क़रार में
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
जल्वा-गर है इस में ऐ 'सीमाब' इक दुनिया-ए-हुस्न
जाम-ए-जम से है ज़ियादा दिल का आईना मुझे
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
तअ'ज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में
हज़ारों दिल में अंगारे भरे थे लग गई होगी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
सुनी न मिस्र ओ फ़िलिस्तीं में वो अज़ाँ मैं ने
दिया था जिस ने पहाड़ों को रा'शा-ए-सीमाब
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दे ही देते हैं किसी तरह तसल्ली 'सीमाब'
ख़ुश रहें वो जो मिरे दिल की दुआ लेते हैं