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ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
क्या तिरा जिस्म तिरे हुस्न की हिद्दत में जला
राख किस ने तिरी सोने की सी रंगत कर दी
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
हाथ में सोने का कासा ले के आए हैं फ़क़ीर
इस नुमाइश में तिरा दस्त-ए-तलब देखेगा कौन
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
ये बाज़ार-ए-हवस है तुम यहाँ कैसे चले आए
ये सोने की दुकानें हैं यहाँ तेज़ाब रहता है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
डाली है इस ख़ुश-फ़हमी ने आदत मुझ को सोने की
निकलेगा जब सूरज तो ख़ुद मुझ को आन जगाएगा
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
सोने का ये वक़्त नहीं है जाग भी जाओ बे-ख़बरो
वर्ना हम तो तुम से ज़्यादा चैन से सोने वाले हैं