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ग़ज़ल
उठी जाती है दिल से हैबत-ए-आलाम-ए-रूहानी
जराहत बहर-ए-क़ल्ब-ए-ज़ार मरहम होती जाती है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
हुजूम-ए-आलाम-ओ-ग़म सलामत मगर है फिर भी कोई ख़ला सा
यही तो है राज़ ज़िंदगी का बताए 'हानी' तो क्या बताए
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे
हुब्ब-ए-क़ौमी हो गया नक़्श-ए-सुलैमानी मुझे