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ग़ज़ल
नुक्ता-सरा थे क्या हुआ 'हावी' मियाँ तुम्हें
शेर-ओ-सुख़न को वक़्फ़-ए-ख़त-ओ-ख़ाल कर दिया
हावी मोमिन आबादी
ग़ज़ल
'सौदा' जो उन ने बाँधा ज़ुल्फ़ों में दिल सज़ा है
शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
सय्याद ने बिछाया गुलशन में दाम-ओ-दाना
सुन गुल-एज़ार वाले ओ ख़त्त-ओ-ख़ाल वाले
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
इस दौर में कि चेहरे ही 'अंजुम' हुए हैं मस्ख़
क्या ख़त्त-ओ-ख़ाल से तिरे अंदाज़ा कीजिए
अंजुम रूमानी
ग़ज़ल
बे-ए'तिदाल थे ख़ुद उन के ख़त्त-ओ-ख़ाल 'ज़फ़र'
हर इत्तिहाम मगर शीशागर पे डाल दिया
ज़फ़र मुरादाबादी
ग़ज़ल
बरहना शाम धुँदले आइने में जैसे घुल जाए
कुछ ऐसा ही मिरा महबूब ख़त्त-ओ-ख़ाल रखता है