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ग़ज़ल
कभी ख़ुश हो के करते हो 'सिराज' अपने की जाँ-बख़्शी
कभी उस के बुझा देने कूँ क्या क्या दाव करते हो
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मचल रहा था दिल बहुत सो दिल की बात मान ली
समझ रहा है ना-समझ की दाव उस का चल गया
अंबरीन हसीब अंबर
ग़ज़ल
बहुत दिनों में तुम्हें बस में दाव से लाया
जहाँ जहाँ का मैं माँगूँ वहीं का बोसा दो
मक़सूद अहमद नुत्क़ काकोरवी
ग़ज़ल
ये बिसात-ए-आरज़ू है इस को यूँ आसाँ न खेल
मुझ से वाबस्ता बहुत कुछ दाव पर मेरा भी है