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ग़ज़ल
निकात-ए-इश्क़ असरार-ए-ख़ुदा हैं बेगमाँ 'क़ुर्बी'
जने असरार को बुज्या वही हक़ सात वासिल है
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
मुझ को ऐ पीर-ए-मुग़ाँ मोहतसिब-ए-ना-हंजार
क़ुर्ब-ए-महशर है कि बे-क़ुर्बी से बुलवाए क़रीब
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
रूँ रूँ ज़बाँ करूँ तो उस की सना न सर सी
'क़ुर्बी' करम सूँ हक़ की क्या ख़ुश-निकात पाया
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
ऐ महरम-ए-ख़ुदाई यक ज़र्रा ग़ौर कर देक
नुक्ते भरे हैं ने के 'क़ुर्बी' के हर सुख़न में
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
सख़्त पर्दा है गुमाँ दीदा-ए-दिल पर 'क़ुर्बी'
देक मुख यार का हर जा रह-ए-ईक़ान में आ