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ग़ज़ल
क्या जाने बरसात कटेगी कैसे मेरे बच्चों की
घर की ढेरी में थोड़ा सा धान बचा है ले दे कर
दीदार बस्तवी
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
ये कच्ची मिट्टियों का ढेर अपने चाक पर रख ले
तिरी रफ़्तार का हम-रक़्स होना चाहता हूँ मैं
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
सोचा ये था वक़्त मिला तो टूटी चीज़ें जोड़ेंगे
अब कोने में ढेर लगा है बाक़ी कमरा ख़ाली है