किसी का नाम लो बे-नाम अफ़्साने बहुत से हैं
किसी का नाम लो बे-नाम अफ़्साने बहुत से हैं
न जाने किस को तुम कहते हो दीवाने बहुत से हैं
जफ़ाओं के गिले तुम से ख़ुदा जाने बहुत से हैं
मगर महशर का दिन है अपने बेगाने बहुत से हैं
बनाए दे रही हैं अजनबी नादारियाँ मुझ को
तिरी महफ़िल में वर्ना जाने-पहचाने बहुत से हैं
धरी रह जाएगी पाबंदी-ए-ज़िंदाँ जो अब छेड़ा
ये दरबानों को समझा दो कि दीवाने बहुत से हैं
बस अब सो जाओ नींद आँखों में है कल फिर सुनाएँगे
ज़रा सी रह गई है रात अफ़्साने बहुत से हैं
तुम्हें किस ने बुलाया मय-कशों से ये न कह साक़ी
तबीअ'त मिल गई है वर्ना मयख़ाने बहुत से हैं
बड़ी क़ुर्बानियों के बा'द रहना बाग़ में होगा
अभी तो आशियाँ बिजली से जलवाने बहुत से हैं
लिखी है ख़ाक उड़ानी ही अगर अपने मुक़द्दर में
तिरे कूचे पे क्या मौक़ूफ़ वीराने बहुत से हैं
न रो ऐ शम्अ' मौजूदा पतंगों की मुसीबत पर
अभी महफ़िल से बाहर तेरे परवाने बहुत से हैं
मिरे कहने से होगी तर्क-ए-रस्म-ओ-राह ग़ैरों से
बजा है आप ने कहने मिरे माने बहुत से हैं
'क़मर' अल्लाह साथ ईमान के मंज़िल पे पहुँचा दे
हरम की राह में सुनते हैं बुत-ख़ाने बहुत से हैं
- पुस्तक : Rashq-e-Qamar (पृष्ठ 97)
- रचनाकार : Qamar Jalalvi
- प्रकाशन : Shaikh Shokat ali and Sons
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